सापत ताड़त परुष कहंता, बिप्र पूज्य अस गावहिं संता का भावार्थ

सापत ताड़त परुष कहंता।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।

दरअसल रामचरित मानस की इन चौपाई के सहारे कुछ नकारात्मक विचारधारा के लोगो द्वारा आजकल सोशल मीडिया पर नवयुवकों को भ्रमित व रामचरित मानस का दुष्प्रचार किया जाता है।
शाप देता हुआ मारता हुआ shapat tadat ramayan vicharshala विचारशाला

आइये इस पर चर्चा करते है ।

दरअसल यह तुलसीदास जी कृत रामचरित मानस की चौपाई है ।
हर चौपाई का संबंध अपनी अगली व पिछली चौपाई से रहता है । इसका संबंध भी पिछली चौपाई व राक्षश कबंध से है । हालांकि रामचरितमानस में कबंध राक्षस के बारे में कम विवरण है अपितु महर्षि वाल्मीकि जी कृत रामायण में विस्तृत विवरण है ।
सापत ताड़त शाप देता हुआ मारता हुआ shapat tadat ramayan vicharshala

अब आते है मुख्य बात पर,,, दअरसल कबंध राक्षस द्वारा ऋषियों को परेशान करने के कारण  पूर्व जन्म में दुर्वासा ऋषि ने क्रोधित होकर श्राप दिया था । इसलिए यहाँ कबंध राक्षस  श्राप व ऋषि दुर्वासा के क्रोध के कारण प्रभु श्री राम से ऋषि दुर्वासा के बारे में भला बुरा कहता है।

तो श्रीरामजी ने कहा कि शाप देता हुआ और फटकारता हुआ ब्राह्मण भी पूज्य है इस वाक्य के पीछे श्रीरामजी का अभिप्राय था कि दुर्वासा जी के अवगुण तो तू देख रहा है पर इनके जीवन में जो तप है, त्याग है, गुण है और जो विशेषताएँ हैं उनके उपर तेरी दृष्टि नहीं जाती| (क्योंकि कबंध के कहने का अभिप्राय था कि दुर्वासा ब्राह्मण होकर भी बहुत क्रोधी हैं) उनमे क्रोध की मात्रा कुछ अधिक है परन्तु श्राप का कारण तो आपकी (कबंध राक्षस) अमर्यादा ही थी ।

अर्थात् शाप देता हुआ, ताड़ना करता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी दुर्वासा जी जैसा विप्र पूजनीय है क्योंकि संतजन भी उनकी महिमा को भलीभाँति जानते हैं कि दुर्वासा जी रुद्रांश हैं 'क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा: रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे' जिनका स्वभाव है। लेकिन उनका तपोबल व ज्ञान महान है । जिसमें न शील है और न ही कोई विशेष गुण; तो क्या इन्हें शूद्र मान लिया जाए? नहीं.! 
"शूद्र न"  ये शूद्र नहीं हैं। ये ज्ञान में प्रवीण हैं ।


कबंध राक्षस शाप देता हुआ मारता हुआ shapat tadat ramayan vicharshala

चूंकि कबंध का अर्थ व  कबंध उसे बोलते है जिसके शरीर पर सिर नहीं होता| बाकी सारा शरीर होता है । कंबध के पेट मे मुख था । व वह विचित्र शरीर वाला राक्षस था ।

शारीरिक भाव मे  सिर के अंग को बोला जाता हैं ब्राहमण, जैसे पैरों को शूद्र आदि| जबकि शरीर में सब कुछ सभी अंग होने  चाहिए । लेकिन कबंध के विचित्र शरीर मे सिर नही था।

यहाँ ब्राह्मण की बात श्रीराम द्वारा कबंध के अंदर की जो द्वेष बुद्धि है उसको मिटाने के लिए कहते हैं| क्योंकि कबंध श्री दुर्वासा के शाप से दुखी था|

चूंकि तुलसीदास जी कृत रामचरित मानस की अपेक्षा महर्षि वाल्मीकि जी की रामायण प्राचीन है । तुलसीदास जी ने मानस की रचना अवधि में इसलिए कि थी कि ताकि गैर संस्कृत भाषी, कम पढ़ा व आम व्यक्ति भी इसे समझ सके, इसलिए इस पर टिका टिप्पणी करना थोड़ा कठिन है । सम्भवतः पूर्व में व्याख्याकारों द्वारा गलत व्याख्याएँ की गई है ।

आजकल कुछ नकारात्मक विचारधारा के लोग इन चौपाई की आड़ लेकर तुलसीदास जी को गैर ब्राह्मण विरोधी बताते है ।
जिसका  खंडन भी तुरंत ही  अगली कुछ चौपाई में मिल जाता है | श्रीरामजी कबंध से मिलने के पश्चात सीधे माँ शबरी (जो कि गैर ब्राह्मण है ) के आश्रम पहुँचते है। और माँ शबरी के प्रति प्रेम व आदर तो सर्वजगत को विदित है।

कुछ अति उत्साही ब्राह्मण लोगो द्वारा भी आजकल इस चौपाई का सहारा लेकर स्वंय का महिमामंडन किया जाता है कि अपराध करने पर भी ब्राह्मण महान है। जो कि गलत है क्योंकि खर, दूषण, कुम्भकर्ण व स्वयं रावण भी ब्राह्मण ही था जिसका प्रभु श्री राम ने वध किया । अपराधी अपराधी होता है भले वह कोई भी हो।
बाकी :-
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी ।।

(उपरोक्त लेख की रचना रचनाकार केशव फूलबाज व  हेमराज मीना द्वारा आपसी चर्चा द्वारा की है।  इसका उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नही है । हमारा उद्देश्य धार्मिक ग्रंथों के प्रति फैल रही अफवाहों का खण्डन करने का प्रयास करना है । )


हेमराज मीना
टोडाभीम, राज.
author

केशव फूलबाज

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