धुंधली धुंधली सी ये हवायें कुछ रूहानी होने लगी है ।
अब मन और तन को सुहाने लगी है,
मेरे देश के अन्नदाता पर इल्ज़ामों की बौछार करने वालो की भी आत्मा कुछ सहमने लगी है ।।
प्रकृति की अलौकिक छटाएँ अब निखरने लगी है,
धरती माँ कुछ मुस्करा कर हँसने लगी है ।
प्रकृति की अनमोल वस्तुओ को कागज के टुकड़ों से
तोलने वालो की भी आंखे खुलने लगी है ।।
पक्षियों का कलरव सुन कर रूह भी निखरने लगी है,
दूर नील गगन के ऊँचे पर्वत की झलक भी
अब दिखाई देने लगी है ।
अब दिखाई देने लगी है ।
इंसान को सवारने में सब कुछ खो चुकी,
धुंधली धुंधली सी ये हवायें कुछ रूहानी होने लगी है ।
कोरोना संकट में इंसानी स्वार्थ से परे
पंछीयो में हौसला हफजाई होने लगी है,
प्रकृति के दूसरे पुत्रों की भी दूर गगन में
ऊँची झलांगे अब दिखायी देने लगी है ।
स्वार्थी मानव की काली करतूतों की परते अब खुलने लगी है,
अंधाधुंध दोहन से बेसुध प्रकृति में अब थोड़ी जान आने लगी है ।
कैसे कह दु ये संकट समूची प्रकृति पर है,
मानव ही झूझ रहा है सिर्फ,
बाकी प्रकृति तो मुस्करा रही है ।
धुंधली धुंधली सी ये हवायें कुछ रूहानी होने लगी है
[ लोकडाउन के समय यह रचनाकार की निजी रचना है ]
स्काउट सचिव,
लालसोट - (दौसा)